एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा बंजर धरती,...
एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ, आता हुआ दिन छुआ हाथों से गुजरता कल छुआ हर बीज, अँकुआ,...
परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर टक टकी...
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की...
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...